Indian Poet Jhandu Mir: पानीपत के देहरा गांव में जन्मे झंडू मीर, जिन्होंने 50 साल की उम्र में अपनी रागनियों के दम पर हिंदुस्तान से पाकिस्तान तक अपनी पहचान बनाई, आज गुमनाम हो चुके हैं। उनकी कला, उनके सांग और उनके किस्से आज भी अमर हैं, पर Jhandu Mir को पहचानने वाले बहुत कम हैं।
Indian Poet Jhandu Mir: देहरा गांव का गौरव
पानीपत के देहरा गांव में 1894 में जन्मे झंडू मीर, हरियाणा की सांग परंपरा के वो चमकते सितारे थे जिन्होंने अपने हुनर से सिर्फ अपने गांव या प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान तक अपनी पहचान बनाई। देहरा गांव, जिसे कभी लोग
झंडू वाला देहरा (jhandu aala dehra) कहकर पहचानते थे, अब इस गांव में झंडू मीर की यादें बस उनके किस्सों तक सिमट कर रह गई हैं। उनके घर की जगह अब एक सरकारी औषधालय खड़ा है, और उनकी आवाज़, उनके सांगों का वो जादू अब कहीं खो चुका है।
Jhandu Mir डूम यानी मिरासी जाति से थे। उनके पिता उत्तर प्रदेश में कव्वाली गाते थे और झंडू मीर उनके साथ हारमोनियम बजाया करते थे। संगीत उनके खून में था, और उनकी प्रतिभा ने उन्हें बहुत कम उम्र में ही प्रसिद्ध बना दिया। झंडू मीर दादा लखमीचंद के समकालीन थे । झंडू मीर ने संगीत की शिक्षा जावली गांव के मान सिंह (Maan Singh)से ली थी। हरियाणा के महान लोक कलाकार दादा लखमी चंद (Dada Lakhmi Chand) के गुरु भी मान सिंह थे पर वो बसोदी गांव वाले मान सिंह थे ।
Indian Poet Jhandu Mir: रागनी और सांग के मैदान में कदम
झंडू मीर ने मात्र 23-24 साल की उम्र में ही बेडेबंद सांगी बनकर अपनी यात्रा शुरू की थी। उनका पहला बड़ा सांग 1922-23 में सामने आया, और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके सांगों में एक खास स्थानीयता थी, जो हरियाणवी जीवन की कठिनाइयों और खुशियों को चित्रित करती थी। उनके सांगों ने देहरा गांव को 1920 से 1950 के बीच हरियाणवी सांगी संगीत का गढ़ बना दिया।
Indian Poet Jhandu Mir के रसोइए मंगलू, जो देहरा गांव के ही थे, उनके किस्से सुनाया करते थे और उनके सांगों के बारे में चर्चा करते थे। उन्होंने सांग (haryanvi saang) के ऐसे मंच तैयार किए जो लोगों के दिलों में बस गए। उनके एक सांग की फेमस लाइन ‘कुएं की पनिहारियों तम गीला मत ना मानियो’ आज भी हरियाणा और Pakistan में गाया जाता है। खासतौर पर उनका सांग
हीर-रांझा (Heer Raanjha) पाकिस्तान में आज भी बेहद लोकप्रिय है।
Indian Poet At Pakistan: पाकिस्तान का सफर और संघर्ष
मारकाट (1947 के बंटवारे) के दौर के बाद जब झंडू मीर पाकिस्तान पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि वहां की भाषा और संस्कृति में उर्दू और पंजाबी का बोलबाला है। उन्हें फिर से अपनी कला को स्थापित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। पाकिस्तान के रेडियो स्टेशन उन्हें परफॉर्मेंस के लिए बहुत समय नहीं देते थे, जिससे उन्हें अपनी पहचान बनाने में दिक्कतें आईं। भले ही वे पाकिस्तान में बहुत सफल नहीं हो पाए, लेकिन वहां भी उनके कुछ सांगों ने अपनी छाप छोड़ी। खासतौर पर उनकी रागनियों में हिंदुस्तान और अपने गांव देहरा की यादें साफ झलकती थीं।
Dada Lakhmi Vs Jhandu Mir: झंडू मीर बनाम दादा लखमीचंद: एक ऐतिहासिक मुकाबला
Haryana के संगीत प्रेमियों के लिए एक खास किस्सा है जिसमें झंडू मीर और दादा लखमीचंद के बीच एक रागनी प्रतियोगिता हुई थी। इस प्रतियोगिता में, झंडू मीर विजेता बने थे। इस घटना को लेकर बुजुर्गों का कहना है कि दादा लखमीचंद उस दिन हार गए थे। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि दादा लखमी के सामने झंडू मीर इतने बड़े नहीं थे और दादा लखमी उनसे कभी नहीं हारे। बुजर्गों ने चाहे जिसे जीता समझा हो लेकिन दोनों कलाकारों ने हरियाणवी संस्कृति को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है । झंडू मीर ने अपने शब्दों में इस जीत को कुछ इस तरह से बयान किया था:
“तुम दाल का मुकाबला करो खीर के गेल्यां,
जीत के गया ना कोई झंडू मीर के गेल्यां।
झूठी कोनी यारी मेरी उस हीर के गेल्यां,
और के करेगी रांझे मीर के गेल्यां।”
हालांकि, झंडू मीर और दादा लखमीचंद के बीच के रिश्ते में एक गहरी सम्मान की भावना भी थी। झंडू मीर के देहरा गांव में जब चंदे से मंदिर बना, तो दादा लखमीचंद वहां पर रागनी गाने आए थे, और झंडू मीर ने दर्शकों में बैठकर उनका सांग सुना।
Indian Poet Saang And Ragni: सांगों और रागनियों का जादू
झंडू मीर की खासियत थी कि वे तत्काल एक छोटी सी कहानी से दस घंटे तक चलने वाला सांग तैयार कर लेते थे। उन्होंने नौटंकी, सिला सतवंती, और राजा उतनपात जैसे सांग लिखे, जो उस समय बेहद लोकप्रिय हुए। उनकी लगभग 40 से 50 सांग खुद के बनाए हुए थे, और वे 200 से ज्यादा फुटकड़ रागनियों के मालिक थे। उनके चेले, जैसे प्यारे लाल (मुंडलाना), नसरू मीर (यूपी), बंधु मीर (Karachi), हुक्म सिंह और झंडू मीर (सिंक पाथरी, जींद) ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया।
Indian Poet Jhandu Mir: झंडू मीर की धरोहर
आज झंडू मीर के बारे में सुनकर दुख होता है कि उनकी रागनियों की छोटी-छोटी लाइनें काटकर लोगों ने अपनी नई रागनियां बना ली हैं। उनकी कला और सांग की परंपरा को सहेजने का जिम्मा अब नए कलाकारों को लेना चाहिए।
झंडू मीर की प्रसिद्ध लाइनें आज भी उनकी सांगी दुनिया को जीवंत करती हैं। वे हमेशा अपने गांव से जुड़े रहे, और उनकी रागनियों में उनके गांव का उल्लेख बार-बार आता है। जैसे उन्होंने एक बार कहा था:
के कह झंडू मीर सब बेरा पट जागा
तेरे गुण अवगुण सब छंट जागा
मूर्ख मुंह पीट जावेगा जाइए देहरे मत न्या
अर उनकी दहशत राण्ड बिठाइए मेरे मत न्या
मेरी नेड तले ना ले ले डोरा फेरे
मत न्या
मेरी बंधी बुवारी न्यारी सिंक बखेरे मत न्या
उनकी ये पंक्तियां आज भी देहरा गांव के लोगों की ज़ुबान पर हैं। भले ही समय के साथ उनकी यादें धुंधली हो गई हों, लेकिन उनकी कला, उनका संगीत और उनकी पहचान आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं। झंडू मीर जैसे कलाकार को याद करना हमारे सांस्कृतिक इतिहास को संजोने जैसा है, और उनकी रचनाओं को आगे बढ़ाना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Indian Poet Jhandu Mir की यात्रा एक ऐसे कलाकार की कहानी है जिसने अपनी सीमाओं को लांघकर कला के माध्यम से खुद को दुनिया के सामने पेश किया। उनकी कला, उनकी आवाज़ और उनके सांग आज भी हरियाणा और पाकिस्तान में जीवित हैं। हमें उनकी इस धरोहर को संरक्षित करने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी झंडू मीर (Jhandu Mir) के सांगी योगदान से प्रेरणा ले सकें।