Kareva Vivah : चंडीगढ़: पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि पति की मृत्यु के बाद देवर या जेठ से करेवा विवाह करने वाली महिला विधवा पेंशन की हकदार नहीं हो सकती। कोर्ट ने करेवा विवाह को पुनर्विवाह का एक मान्यता प्राप्त रूप बताते हुए इसे सामाजिक रूप से स्वीकार्य करार दिया है।
हाई कोर्ट का यह फैसला हरियाणा सरकार के एक निर्णय को बरकरार रखते हुए आया, जिसमें एक महिला की विधवा पेंशन रोकने का आदेश दिया गया था। महिला ने अपने दिवंगत पति के छोटे भाई से करेवा विवाह किया था और दावा किया था कि करेवा विवाह का कोई कानूनी महत्व नहीं है।
क्या है करेवा विवाह?
Kareva Vivah की प्रथा उत्तर भारत के विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में प्रचलित है। इसमें विधवा महिला अपने मृत पति के भाई या अन्य निकट रिश्तेदार से पुनर्विवाह करती है। यह विवाह अधिकतर समाज के कुछ समुदायों में होता है, जहां भावी पति महिला के सिर पर चादर या लता यानी चुन्नी डालकर विवाह करता है।
सरकारी सहायता का अधिकार नहीं
हाई कोर्ट ने माना कि विधवा पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं पात्रता की शर्तों पर आधारित हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति इन शर्तों को पूरा नहीं करता, उसकी पेंशन रोक दी जाती है। कोर्ट ने कहा कि वित्तीय सहायता एक अधिकार नहीं, बल्कि एक कल्याणकारी योजना का हिस्सा है।
Highcourt ने याचिका खारिज की
हरियाणा के कैथल जिले की निवासी शांति देवी ने अपनी विधवा पेंशन रोके जाने और 1,06,500 रुपये की वसूली के आदेश को चुनौती दी थी। कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने करेवा विवाह किया था और तथ्य छिपाकर पेंशन का लाभ लिया।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी थी कि करेवा विवाह केवल सामाजिक दायित्व है, इसे वैध विवाह नहीं माना जा सकता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि शांति देवी गरीब महिला हैं और उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान किया जा रहा है।
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कोर्ट का फैसला
जस्टिस विनोद एस भारद्वाज ने कहा कि सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए पात्रता की शर्तों को पूरा करना जरूरी है। अगर पात्रता समाप्त हो जाती है, तो सहायता रोक दी जाएगी और गलत तरीके से लिए गए लाभ की वसूली की जाएगी।
हाई कोर्ट के इस फैसले से विधवा पेंशन की पात्रता को लेकर स्पष्टता आ गई है और यह सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दिशा में एक अहम कदम है।